छोड़ फ़िक्र दुनिया की, चल मदीने चलते हैं

मुस्तफ़ा गुलामों की क़िस्मतें बदलते हैं

 

छोड़ फ़िक्र दुनिया की

 

रहमतों के बादल के साए साथ चलते हैं

मुस्तफ़ा के दीवानें घर से जब निकलते हैं

 

छोड़ फ़िक्र दुनिया की

 

हम को रोज़ मिलता है सदक़ा प्यारे आका का

उन के दर के टुकड़ों पर ख़ुश-नसीब पलते है

 

छोड़ फ़िक्र दुनिया की

 

आमिना के प्यारे का, सब्ज-गुंबद वाले का

जश्न हम मनाते हैं, जलने वाले जलते हैं।

 

छोड़ फ़िक्र दुनिया की

 

सिर्फ़ सारी दुनिया में वो तयबा की गलियाँ हैं

जिस जगह पे हम जैसे खोटे सिक्के चलते हैं

 

छोड़ फ़िक दुनिया की

 

सच है गैर का एहसां वो कभी नहीं लेते

ए ‘अलीम’ ! आका़ के जो टुकड़ों पे पलते हैं।