तू शम-ए-रिसालत है, ‘ आलम तेरा परवाना

तू माह-ए- नुबुव्वत है, ऐ जल्वा-ए-जानाना !

जो साक़ी-ए-कौसर के चेहरे से नक़ाब उठे

हर दिल बने मय-खाना, हर आँख हो पैमाना

दिल अपना चमक उठे ईमान की तल अत से

कर आँखें भी नूरानी, ऐ जल्वा-ए-जानाना !

सरशार मुझे कर दे इक जाम-ए-लबालब से

ता- हश्र रहे, साक़ी आबाद ये मय-ख़ाना

तुम आए छटी बाज़ी, रौनक़ हुई फिर ताज़ी

का’बा हुवा फिर का’बा, कर डाला था बुत-ख़ाना

उस दर की हुज़ूरी ही इस्याँ की दवा ठहरी

है ज़हर-ए-म आसी का तयबा ही शिफ़ा ख़ाना

हर फूल में बू तेरी, हर शम अ में ज़ौ तेरी

बुलबुल है तेरा बुलबुल, परवाना है परवाना

पीते हैं तेरे दर का, खाते हैं तेरे दर का

पानी है तेरा पानी, दाना है तेरा दाना