सोचता हूँ मैं वो घड़ी, क्या अजब घड़ी होगी

जब दर-ए-नबी पर हम सब की हाज़री होगी

आरज़ू है सीने में, घर बने मदीने में

हो करम जो बंदे पर, बंदा-परवरी होगी

किब्रिया के जल्वों से क्या समाँ बँधा होगा

महफ़िल-ए-नबी जिस दम ‘अर्श पर सजी होगी

बात क्या है! बाद-ए-सबा इतनी क्यूँ मुअत्तर है

सब्ज़-सब्ज़ गुंबद को चूम कर चली होगी

सौ खुलेंगे उस के लिए रहमतों के दरवाज़े

ना’त-ए-मुस्तफ़ा जिस ने एक भी सुनी होगी

एक ही निशानी है मुस्तफ़ा के मय-कश की

मुस्तफ़ा के मय-कश की आँख मध-भरी होगी

नाम-ए-मुस्तफ़ा की कसम, पुर-सुकूँ हूँ मैं अब तक

तुम भी नाम लो उन का, घर में शांती होगी

देख तो, नियाज़ी ! ज़रा, सो गया क्या दीवाना

उन की याद में शायद आँख लग गई होगी